सच्ची कहानी : कर्म और भाग्य की गणना में, न माँ बड़ी और न ही पुत्र।

सच्ची कहानी : कर्म और भाग्य की गणना में, न माँ बड़ी और न ही पुत्र।

एक दिन एक नौजवान अकेला बैठा रो रहा था।  पास ही से एक साधू गुज़रा तो उसके नौजवान से पूछा - "क्यों बेटा क्यों रो रहे हो ?" नौजवान बोला - "हे साधू महाराज मेरा संसार में कोई नहीं है ।" साधू नौजवान के पास बैठ गया और पूछा - "बहुत दुःख हुआ । क्या हुआ तुम्हारे माँ - पिता जी को "। नौजवान बोला - "कुछ नहीं, माँ तो बिलकुल ठीक हैं "। साधू ने फिर पूछा - "तुम्हारे भाई और बहिन"। नौजवान ने फिर कहा - "वो भी ठीक हैं "।

साधू समझ नहीं पाया और नौजवान से पूरी बात बताने के लिए कहा ।

नौजवान बोला - "मुझे इतने वर्ष लग गये यह जानने के लिए की मेरा कोई नहीं है और किसी को भी मुझसे लगाव नहीं है । न माँ-पिता जी को, न भाई-बहन को । मैंने सब के लिए इतना कुछ किया परन्तु सब न जाने क्यों मुझसे इतनी नफरत करते रहे । मैंने तो किसी का कुछ नुक्सान भी नहीं किया, बुरा नहीं किया, कभी किसी से धन कि लालसा नहीं रखी ।"

साधू परेशान हो गया की आखिर बात क्या है । उसके नौजवान से अपनी कहानी सुनाने के लिए कहा ।

नौजवान ने सुनाई अपनी कहानी - "जब मैं छोटा था तो एक बार मैं बहुत बीमार हुआ, मुझे बताया गया की मुझे एक डॉक्टर ने बचाया । पढाई के लिए मेरे स्कूल इतने बदले की मुझे खुद पता नहीं की मैं किस स्कूल से पढ़ा हूँ । थोड़ा और बड़ा हुआ तो मेरे माँ-पिता ने मुझे अकेले रेलगाड़ी में बिठा कर चाचा के घर भेज दिया पढाई के लिए । मैं साथ में बैठे एक यात्री की उंगली पकड़ कर घंटों बैठा रहा - केवल 8-9 वर्ष का था मैं । 6 वर्ष बाद मैं वापस आया तो फिर पढाई के लिए दूसरे शहर भेज दिया । फिर नौकरी लग गयी । फिर नौकरी के लिये शहर से बाहर चला गया । वषों अकेला रहा और जब भी माँ-पिताजी या भाई बहनों के पास मिलने आता कोई सीधे मुहं बात नहीं करता और सभी अनादर करते ।  फिर शादी हो गयी तो माता-पिता ने घर से निकाल दिया । फिर भी मैं साथ निभाता रहा । मैंने और मेरी पत्नी ने मिल कर परिवार को जोड़ने की बहुत कोशिश की परन्तु कोई भी हम से रिश्ता रखना नहीं चाहता था "।

साधू की ऑंखें नम हो गयी और साथ ही नौजवान की ऑंखें भी ।

नौजवान ने आगे बताना शुरू किया - "फिर मेरी नौकरी बाहर दूसरे राज्य में लग गयी और हमें वहां जा कर रहना पड़ा । परन्तु जब भी में वापस मिलने आता तो हमेशा रो कर ही वापस जाता । किसी का व्यवहार नहीं बदला था । फिर पिता बीमार रहने लगे । उनकी देखभाल के लिए जब भी मैं आता, चार बातें सुन कर ही जाता । फिर एक दिन उनकी तबियत और बिगड़ गयी और उनका निधन हो गया ।"

साधू ने नौजवान के सर पर हाथ रख कर उसको शांत करने की कोशिश की । परन्तु नौजवान अपनी बात सुनाना चाहता था  ।

नौजवान ने फिर बताना शुरू किया - "मेरे पिता की मृत्यु पर कोई नहीं आया और केवल मैंने और मेरी माँ ने पिता की मृत्यु की बाद के सारे कार्य पूरे किये । हैरान था कि जिन बच्चों को हमेशा मेरे माँ-पिताजी ने सबसे ज़्यादा प्यार किया, आर्थिक सहायता दी , वो मेरे पिता के गुज़र जाने के बाद इतने दूर कैसे हो गये और सबने कहना शुरू कर दिया कि अब मुझे ही अपनी माँ का ख्याल रखना है, और अपने पास रखना है और अब उनको माँ से कोई मतलब नहीं ।"

साधू भी परेशान हो गया और नौजवान से आगे बताने के लिए कहा ।

नौजवान ने फिर बताना शुरू किया - "मैं अपनी माँ को अपने साथ दूसरे शहर ले गया परन्तु हैरान था कि वहां भी मेरे ही घर में रह कर वो सारा दिन मेरी और मेरे परिवार कि बुराई मेरे बहिन-भाइयों से करती रहती । मैंने उनका बहुत ख्याल रखा। पहले वो खाना कहती फिर हम खाते।   परन्तु महसूस हुआ की उनका मुझसे या मरे परिवार से कोई भी लगाव नहीं था । कुछ दिन रह कर उन्होंने वापस अपने शहर जाने की ज़िद की और मैं उनको वापस ले आया । फिर वही शुरू हो गया - मेरे लिए मेरी माँ और भाई-बहनों के दिल में केवल नफरत ही थी । जो भाई-बहन अपने खुद के पिता के देहांत के बाद मिलने भी नहीं आये, वही मेरी माँ को सगे लगते थे । मैंने अपनी माँ को बहुत समझने की कोशिश की परन्तु वो नहीं मानी । आखिरकार वो मेरे छोटे भाई के घर रहने चली गयीं और वहीं रहने लगी ।"

"फिर क्या हुआ"- साधू ने पूछा ।

"फिर एक दिन अचानक उन्होंने वापस आ कर फिर मेरे साथ रहने का फैसला किया । परन्तु अब मैं तैयार नहीं था । मेरा परिवार इन सब घटनाओं से बहुत परेशान हो चूका था और अब आगे सहन करने को तैयार नहीं था । जिस माँ-पिता ने, भाई बहनों ने इतने वर्ष तक मेरा सिर्फ शोषण किया हो, आज मेरी मदद मांग रहे थे क्योंकि माँ को कोई भी रखना नहीं चाहता था । फिर भी मैं कुछ नहीं बोला और माँ मेरे साथ रहने लगी । परन्तु फिर उन्होंने वही मेरे और मेरे परिवार के बारे में मेरे इन्ही भाई-बहनों को उल्टा-सीधा बताना शुरू कर दिया । रोज़ घर में झगडे होने लगे और हार कर मैंने अपनी माँ को वापस उन्हीं के घर छोड़ने का निर्णय लिया ।" नौजवान ने बताया ।

साधू ने सारी बात सुनी और पूछा - "फिर तुम रो क्यों रहे हो"।

नौजवान ने  कहा - "हे साधू महाराज, मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि शिकायत तो मुझे थी। शोषण तो मेरा हुआ । बुरा भला तो मैंने सुना । न मैंने अपने पिता कि वसीयत में से कोई धन माँगा, ना मेरे या मेरे परिवार के दिल में कोई लोभ । फिर मैं कैसे सबसे बुरा बन गया ? आज मेरे पास न माँ है न कोई सगा भाई-बहिन । और लोग कहते हैं मैंने अपनी माँ को छोड़ दिया  - किसको छोड़ दिया, जो खुद मेरी कभी थी ही नहीं ? छोड़ा तो उन्होंने मुझको दिया ।"

साधू मुस्कुराये और बोले - "नौजवान, लोग कहते हैं माँ से बढ़कर कुछ नहीं परन्तु माँ से बढ़कर है, और वो है कर्म ।तूने बहुत कोशिश की परन्तु तेरी कोशिश को और तेरे सम्मान को कोई समझ नहीं पाया । तुझे हमेशा दोषी ठहराया । यह कसूर और बदकिस्मती तेरी नहीं उनकी है । पछतावा तुझे नहीं उनको होना चाहिए, जिन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्र और एक भाई को समझने में इतनी विशाल भूल कर दी । कर्म के हिसाब से सब बराबर हैं, न माँ बड़ी और न ही पुत्र। न ही पिता बड़ा और न ही भाई-बहिन । कर्म सिर्फ कर्म देखता है । आज तेरा यूं अकेले बैठ कर यह सोचना ही बताता है कि तेरी तरफ से तूने बहुत कोशिश की परन्तु जब उनके भाग्य में ही तुझ से सुख प्राप्त करना नहीं था तो कहाँ से मिलता । इसमें तू क्या करेगा । इसलिए पछताना छोड़ और अपने परिवार और अपने भविष्य को संवार। "

यह कहकर साधू वहां से चल दिए और साथ ही नौजवान ।

लगाव, सम्मान और भावनाएं एक तरफ़ा नहीं होती । बिना लालच या लोभ से की गयी सेवा, धर्म के सामान होती है, और सही-गलत का फैसला कर्म के आधार पर होता है । माँ तो माँ होती है, परन्तु पुत्र भी पुत्र ही होता है, और कर्म और भाग्य की माने तो दोनों ही बराबर हैं ।

Except for the schooling part everything else matches exactly with my life story.

Mr. Gurdayal

Sr. Design Engineer | Mechanical Engineering, Signage Production Design, Signage Manufacturing, SolidWorks, AutoCAD, ArtCAM, BOM Creation

1y

Very good story

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