आखिर प्लास्टिक संधि नहीं हुई

आखिर प्लास्टिक संधि नहीं हुई


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जैसी उम्मीद थी इस बार भी प्लास्टिक को लेकर अंतर्राष्ट्रीय संधि के लिए हो रही शीर्ष स्तरीय वार्ता बिना किसी सहमति के अगले दौर की चर्चा का निर्णय लेते हुए समाप्त हो गई। 4 अगस्त से जेनेवा में अनगिनत स्वैच्छिक संगठनों, उद्योग संगठनों की उपस्थिति के मध्य 183 देशों एवं 1000 पर्यवेक्षकों समेत लगभग 2600 से अधिक प्रतिनिधियों तथा 70 से अधिक मंत्रियों एवं अप मंत्रियों की उपस्थिति में अंतिम दौर की वार्ता फिर पुराने बिंदुओं पर विकसित देशों की हठधर्मिता के आगे अंजाम तक नहीं पहुँच सकी। इस पूरे दौर में विभिन्न प्रावधानों को लेकर अमीर देशों द्वारा हंगामे खड़े कर वार्ता को बीच में ही रोकने के भी प्रयास किए गए। 14 अगस्त तक होने वाला यह दौर एक दिन आगे बढ़कर 15 अगस्त की अल सुबह बिना सुलह के संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों द्वारा नैराश्य भाव के साथ समाप्त घोषित कर दिया गया। सन् 2022 में संयुक्त राष्ट्र ने प्लास्टिक के द्वारा ढहाए जा रहे हैं कहर को समझते हुए एक प्रस्ताव के माध्यम से तक सन् 2024 की समाप्ति पूर्व तक समस्त राष्ट्रों के मध्य एक निर्णायक एवं बाध्यकारी संधि की संकल्पना रखी थी। तय कार्यक्रम के अनुसार तो दिसंबर 2024 में कोरिया के बुसान शहर में आयोजित पांचवें दौर की वार्ता के पश्चात संधि पर सहमति हो जानी चाहिए थी, किंतु प्लास्टिक उत्पादन, डिजाइन, वित्तीय प्रबंधन समेत महत्वपूर्ण विषयों पर अनेक राष्ट्रों की असहमति के रहते, जिनेवा में एक और दौर की वार्ता रखी गई।वैसे तो संधिवार्ता से पहले अमेरिका एवं तेल उत्पादक देशों के रुख को देखते हुए यह आशंका प्रबल थी कि प्रस्ताव पर आम सहमति नहीं हो पाएगी। इससे फिर एक बार साबित हो गया कि वैश्विक समस्याएं भी वर्चस्व की भेंट चढ़ जाती है। हर और उपदेश तो स्वहित से ऊपर उठकर निर्णय लेने के दिए जाते हैं किंतु वास्तविकता में स्वहित ही सर्वोपरि रहता है।

चिंतन का विषय यह भी है की इस प्रकार के आयोजनों पर ना सिर्फ प्रत्यक्ष रूप से सैकड़ों करोड़ रुपयों का खर्च होता है, साथ ही इससे जुडी परिवहन व्यावस्थाओं इत्यादि के चलते भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन भी होता है। यदि प्लास्टिक संधि बावत आयोजित सात दौर की वार्ता का आंकलन किया जाए, तो लाखों मानव दिवस और हज़ारों करोड़ रुपये इसकी भेंट चढ़ गए। यदि यही निवेश प्लास्टिक के विकल्प तथा उससे जुड़ी मूल समस्या प्रबंधन को हल करने मैं किया जाए तो जीव सभ्यता को सार्थक परिणाम देखने को मिलेंगे। अन्यथा, यह पर्यटन मात्र से अधिक कुछ भी नहीं हो पायेगा।

यह सर्वज्ञात तथ्य जानते हुए भी की २०२० से २०४० के मध्य ७० प्रतिशत वृद्धि के साथ प्लास्टिक उत्पादन लगभग ७४ करोड़ टन तक पहुँच जाएगा, फ्रांस, यूरोपियन यूनियन और लगभग 100 देशों के अथक प्रयास के बावजूद संधि अंतिम  निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई। आम सहमति नहीं होने में, मूलत: तेल उत्पादक देशों ने इसकी राह में अपने हितों को साधने के लिए हर संभव रोड़े अटकाए। प्लास्टिक क्योंकि जीवाश्म ईंधन का ही एक बाय प्रोडक्ट है, अतएव उनका हित तो सीधे सीधे टकराता ही  है। यदि प्रस्तावित संधि के अनुसार उत्पादन में निरन्तर कमी पर सहमति होती है, तो उसका सबसे अधिक प्रभाव तेल उत्पादक देशों पर ही पड़ेगा।

वर्तमान स्थिति में वैश्विक स्तर पर १० प्रतिशत से भी कम प्लास्टिक का पुनः चक्रण होने से अधिशेष मात्रा वातावरण में लैंडफिल, जलाने या अन्य माध्यमों से निष्पादित होती है। इस पृष्ठभूमि के साथ, संधि वार्ता के असफल होने पर तूवालू समेत प्रशान्त क्षेत्र के छोटे द्वीपों एवं विकासशील राष्ट्रों ने चिंता ज़ाहिर करते हुए, छोटे द्वीपों को संपन्न राष्ट्रों द्वारा प्लास्टिक कचरागाह के रूप में उपयोग में लाए जाते रहने की आशंका प्रकट की। परिणामस्वरूप, वैश्विक संधि के अभाव में सीधे सीधे उनकी खाद्य सुरक्षा, आजीविका एवं संस्कृति प्रभावित होती रहेगी। वार्ता के इन दौरों में एक अच्छा पक्ष रहा की चीन जैसे अधिकतम प्रदूषण उत्पादक देश ने भी प्लास्टिक से हो रहे नुकसान को लेकर गहन चिंता ज़ाहिर की तथा इसे आगामी पीढ़ियों के लिए खतरा बताया। इसके विपरीत तेल उत्पादक देशों का यह मानना रहा कि वैश्विक संधि संतुलित नहीं हो कर उनके विरोध में लक्षित है, ताकि उनकी समृद्ध अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया जा सके। विरोध को देखते हुए हालांकि अंतिम प्रस्ताव में उत्पादन घटाने के प्रावधनों को विलोपित कर दिया गया लेकिन फिर भी अस्पष्टता के बिनाह पर नकार दिया गया। आपत्ति के मुख्य बिंदुओं में जहाँ उत्पादन के दौरान उपयोग में लाए जा रहे विषैले रसायनों पर अंकुश लगाने पर मतभेद थे वहीं उपयोग पर वैश्विक कार्रवाई की आवश्यकता संबंधी प्रावधान को भी हटाने का ज़ोर लगाया गया। अंतिम दौर में सहमति के लिए प्रस्तुत मसविदे से विषैले रसायनों एवं उपयोग में कमी लेन संबंधी बिंदु भी हटा लिए गए।

यह समझना अत्यंत आवश्यक है की प्लास्टिक उत्पादन एवं उपयोग से न सिर्फ राष्ट्रों की सीमाओं के अंदर तक दुष्प्रभाव सीमित रहता है, अपितु उसका असर सीमा पार तक जाता है। प्लास्टिक दुरुपयोग के कारण वैश्विक जलवायु परिवर्तन, अधिक तापमान समेत अनेक विषम प्रभाव होते हैं, जिनकी टीस कम से कम पड़ोसी देशों को तो सहनी ही पड़ती है। प्लास्टिक उत्पादन करने वाले राष्ट्रीय देशों के द्वारा सीमावर्ती अन्य देशों तक भी उत्पाद निर्यात अथवा अवैध रूप से पहुंचाया जाता है जिसके कारण उत्पादन नहीं करने वाले देश भी प्लास्टिक दुष्प्रभाव की जद में आ जाते हैं।इसको देखते हुए यह राष्ट्रीय समस्या से बढ़कर अंतरराष्ट्रीय हो जाती है।

प्लास्टिक को लेकर समस्त देशों द्वारा विभिन्न मंचों और राष्ट्रीय स्तर पर चिंता व्यक्त की जाती है, किंतु वे भी निर्धारित लक्ष्यों एवं बंधनों से मुक्त रहना चाहते हैं। साथ ही सीमा पार जैसे विषयों को सुलझाने में भी विशेष रुचि प्रदर्शित नहीं करते। दुर्भाग्यवश प्रदूषण को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले देश अपनी जिम्मेदारियों से बचते हुए क्षतिपूर्ति रूप में विकासशील एवं आर्थिक रूप से विपन्न देशों को मदद भी नहीं करना चाहते।

यदि उत्पादन और उपयोग दोनों पक्षों में कमी के समेत हानिकारक रसायनों पर पाबंदी  संबंधी प्रावधान ही हटा दिए जाए तो फिर संधि का औचित्य ही क्या रह जाता है। महत्वपूर्ण विषय यह है की इस पूरी कवायद में ये ही स्पष्ट नहीं हो पाता कि अन्तोगत्वा अपेक्षित परिणाम क्या होने चाहिए? यदि सीधे तौर पर इसे एक दिशाहीन वार्ता के रूप में देखा जाए तो वह अतिशयोक्ति नहीं होगी। तीन वर्षों तक चला यह वार्ता का क्रम तो मात्र शमसान वैराग्य तक ही सीमित रहा। वार्ताओं के दौर के बाद स्वदेश लौट सभी प्रतिभागी, पर्यवेक्षक और स्वैच्छिक संगठन फिर एक बार प्लास्टिक के पर्यावरण पर हो रहे दुष्प्रभाव को लेकर नए दौर की चिंता प्रारंभ कर देंगे।संपूर्ण प्रक्रिया में जहाँ संयुक्त राष्ट्र एक असहाय संगठन के रूप में प्रतीत हुआ तो साथ ही अमेरिका एवं तेल उत्पादक देशों का वर्चस्व भी जाहिर हुआ। बिडम्बना यह है कि, वार्ता से ठीक पहले सुप्रसिद्ध जर्नल लैंसेट में प्लास्टिक के स्वास्थ्य पर हो रहे गहन दुष्प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर १५० करोड़ अमेरिकी डॉलर आर्थिक हानि की चेतावनी के बावजूद संबद्ध राष्ट्रों के कान पर जूँ भी नहीं रेंगी। संभवतया शीघ्र ही सदबुद्धि आए और समस्त राष्ट्र सहमत हो,अपनी जिम्मेदारी महसूस करें। 

 

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